Tuesday, 24 May 2011

खटीक जाति के एतिहासिक तथ्य


जैसा  का सर्वविदित था की 600 पूर्व उत्तर वैदिकाल में कर्मकाण्डो ने अधिक महत्व धारण कर लिया। 
यज्ञों की संखया बढ़ गई। ऐसा व्यास स्मृति मेंलिखा है।क्षत्र्रियॊ का एक झुड पशु मारने के कारण 
अमरसिंह ने अपने कोष में कौटिकश्च लिखा।
11वीसदी में उन क्षत्र्रियॊ केनाम कोटिकश्च शब्द का अर्थ टीकाकरों ने कौटिक निकाला।
कौटिक शब्द का ही अपभ्रंश कटिक और खटिक निश्चित होता है। 
मांस बलि देने की यज्ञों में जब भी आवश्यकता हुई ब्राहम्णों ने इन कौटिक क्षत्र्रियॊ से ही यह 
कार्य करवाया।  बलि का मुहुर्त ब्राह्मण वहां हाजिर रहकर बतातेउसी समय क्षत्र्रिय से 
झटका करवाकर खून का तिलक क्षत्र्रियॊ के करते तथा बकरे का माथा उठाकर देवी की 
मूर्ति पर चढाते  थे, ऐसा व्यास स्मृति में लिखा है।
लगभग १२०० में खटीक जाति क्षन्नियों से बिछङकर बनी।
 क्षन्निय जिन पशुओं कामांस खाते हैं उन्हीं पशुओं के ।टके से मांस के टुकडे  करना,
 खटीकक्षन्नियों का कार्य रहा है और कहीं-कहीं अब भी जो कार्य करते हैं,
क्षन्निय उन्ही का उपयोग कर लेते हैं।
 खटीक जाति उन्ही जातियों के यहां खान पान करते हैजहां क्षन्निय करते है।
क्षन्निय जिन-जिन जातियों की सेवायें लेते हैं उन   जातियों की सेवाएं खटीक
जाति को भी उपलब्ध हैं जैसे नाईकुम्हारधोबीमालीगमेतीढोलीब्राह्मण आदि।
 इस जाति के पुरोहित सानाढ् एवं गौड  ब्राह्मण हैं कहीं-कहीं श्रीमाली ब्राह्मण भी हैं,
गांवों-शहरों में जो भी हिन्दू धर्म के मन्दिर हैं उन मन्दिरों   में इस जाति का चन्दा
 हिस्सा है।
भूतकाल में खटीक अधिकतर उच्चवर्णी क्षन्निय वंश से भी बने हैं।
जो क्षन्निय खटीक हैं वें भगवान राम के पङदादा खटवांग केवंशज हैं।
परशुराम के डर से ये क्षन्निय खटांग से खटक हुए और फिर खटीक कहलाने लगे ऐसे ही प्रमाण हैं।
इस तड  मेंचन्देलखीेंचीतंवरपंवारसांखलासोलंकी आदि ऐसे ही
अनेक गोन्नों का होना खटीक जाति के क्षन्निय होने का प्रमाणहै।
क्षन्नियों के ऊपर लिखी गोन्न के अलावा भी अन्य वर्णो जैसे
ब्राह्मण से दायमाबम्बेरवालराजोरापालिवालनागर आदि,
वैश्यों से गंगवालतोषावङाबागडि यासामरिया आदि ऐसे ही
अनेक गोन्नों का इसमें पाया जाना राजकोटिक के भी प्रमाण हैं।
ऋषि विश्वामिन्न की शिष्य परम्परा से भी खटीक जाति बनीं,
इनके सभी वर्णो के लोग शिष्य बनते थे। विश्वामिन्न को चूंकि
राजऋषि और राजकौशिक भी कहा जाता थाइसलिए
इनके शिष्य कौशिक से कोकि तथा कटिक या खटिक कहलाने लगे।
 जब ऋषि मांसाहारी थेतब से ही ये राजकोटिक - ऋषिगण
नगर के राजा द्वारा बलि के समय मन्दिरों में पूजन और भोग
देने काकाम किया करते थे। ऐसे प्रमाण हैं कि राजा
 नई राजधानी बनाने पर अपने यहां ब्राह्मणनाई आदि के साथ
राजकोटिकों (खटीकोंको भी बसाता था और उनसे कोई सामाजिक
 भेद-भाव भी  था। आज भी जहां-जहां राजा के रजवाडेंहैं,
वहीं परखटीक जाति होगी।
राजाओं के आखेट करने जाते समय जो भी क्षन्निय उनका साथ देते थे,
ये शिकार की रसोई बनाकर खिलाने का काम करते थे,
ये शिकारी थे उन्हें आखेट वाले (अपभ्रंश  में अखटवाल)
या आखेटक कहते थे। आखेटक बाद में खेटक होकर खटिक कहलाने लगे,
 ऐसे भी प्रमाण हैं। इनके राज सम्मान का यह प्रमाण भी है
कि जयपुर (राजस्थानमें इनको चौघरी कहा जाने लगा था।
भाषा विान की दृष्टि से भी खटिक शब्द का विश्लेषण करें तो पायेंगे कि
यह शब्द क्षन्निय से ही बना है। क्ष के स्थान पर खबोला जाना
जैसे क्षेन्नपालके स्थान पर  जैसे क्षेन्न का खेत,
क्षन्निय के खन्निय - खटिक अपभ्रंश एवं उच्चारण दोष
से के  स्थान पर बोला जाना। 

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